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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 31 


आज गुरू पूर्णिमा थी । आज के दिन आश्रम में एक बहुत बड़े उत्सव का आयोजन होता है । समस्त विद्याथीं गुरू के रूप में शुक्राचार्य का पूजन करते हैं । उनसे श्रेष्ठ गुरू और है भी कौन ? गुरू पूजन की परंपरा बहुत प्राचीन है ।  शास्त्रों में भी कहा गया है कि 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देव महेश्वर: । 
गुरुर्साक्षात परं ब्रह्म : तस्मै श्री गुरुवे नम: ।। 

गुरुकुल में इस दिन बहुत चहल पहल रहती है । इस दिन देवयानी को पल भर की भी फुरसत नहीं रहती है । हवन की सामग्री तैयार करना , पूजन की तैयारी करना , भोग के लिए विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाना और पूरे गुरुकुल को रंगोली से सजाना । कितना काम होता है आज के दिन ? वह सुबह से ही लगी हुई थी अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने में । पुष्पों की माला भी तो गूंथनी थी उसे । "अरे, यह तो मैं भूल ही गई थी" देवयानी ने अपना माथा ठोक लिया । कितनी भुलक्कड़ हो गई है वह ? "अभी साधिका से कहकर पुष्प वाटिका से कुछ पुष्प मंगवाती हूं फिर उनकी माला गूंथ दूंगी" । ऐसा सोचकर उसने एक साधिका को आवाज लगाई "साधिका , जरा पुष्प वाटिका में जाकर कुछ पुष्प ले आना , माला गूंथनी है उनकी" । 
"कौन से पुष्प लेकर आऊं, यानी" ? साधिका ने पलटकर प्रश्न पूछ लिया । साधिका उसे देवयानी के बजाय यानी ही कहती थी । वह उसकी हमउम्र जो थी । 
"अरे, पुष्प वाटिका में जो सुंदर सुंदर पुष्प खिल रहे हैं, उन्हें ले आ । जा जल्दी कर" । देवयानी अपना काम करते करते बोली । उसे साधिका की ओर देखने का भी अवकाश नहीं था । 
"वो जो काला गुलाब खिल रहा है, क्या उसे भी ले आऊं" ? साधिका उत्साहित होकर बोली । 

साधिका की इस बात पर देवयानी ने उसे घूरकर देखा । काला गुलाब उसकी जान था । काले गुलाब में उसका दिल धड़कता था । गोरे मुख पर काला गुलाब कितना सुंदर लगेगा ना ? जबसे उस पौधे में गुलाब खिलने लगा था , तब से वह इसी कल्पना में जी रही थी कि जब यह काला गुलाब पूरा खिल जायेगा तब वह उसे तोड़कर उसे अपने माथे पर "टीके" की तरह सजाएगी । पर साधिका तो उस अधखिले गुलाब को ही तोड़ लेना चाहती है । देवयानी ने रोषपूर्ण नेत्रों से साधिका की ओर देखकर कहा 
"इतने विशाल उपवन में क्या एक वही काला गुलाब है जिसे तोड़े जाने का आपने निश्चय कर लिया है ? और भी तो पुष्प खिल रहे हैं पुष्प वाटिका में । फिर काला गुलाब ही क्यों" ? देवयानी की नजरों से चिंगारियां निकलने लगीं । 

देवयानी की क्रोधित मुख मुद्रा को देखकर साधिका भयभीत हो गई । वह जानती थी कि जब देवयानी कुपित होती है तो वह सावन की बदली की तरह फट पड़ती है । वह कोप से बचने के लिए बोली "आज एक तापस कह रहे थे कि वह पौधा शीघ्र ही मृत होने वाला है । मैंने सोचा कि जब वह पौधा मृत होने वाला है तो क्यों न उस गुलाब के पुष्प को पूजा के लिए तोड़ लिया जाये" ? वह नीची नजरें कर चुपचाप खड़ी हो गई । 

देवयानी किसी तापस की बात पर चिढ़ गई । "कौन तापस , कहां का तापस ? पुष्पों के बारे में वह जानता ही क्या है" ? वह मन ही मन झल्ला रही थी । इतने में मुख्य साधिका आ गई और देवयानी से कहने लगी "वह तापस कोई नया लग रहा था । वह स्वयं का नाम "कच" बता रहा था । बातें तो वह ऐसे कर रहा था जैसे वह "उद्यानकी" का विशेषज्ञ हो । वह तो यह भी कह रहा था कि उस काले गुलाब के पौधे में कोई रोग लग गया है और वह पौधा एक माह में मृत हो जाएगा । वह उसमें फिटकरी का पानी देने की बात कर रहा था । वह तो यह भी कह रहा था कि ये नीचे गिरे हुए फूल पत्तियों से बहुत बढ़िया जैविक उर्वरक तैयार हो सकता है जो गुलाब के पौधे के लिए बहुत श्रेयस्कर होगा । पता नहीं कहां से सीखा है उसने ये सब" ? मुख्य साधिका ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा । 

मुख्य साधिका की बातें सुनकर देवयानी व्यंजन बनाते बनाते रुक गई और थोड़ी विस्मित होते हुए कहने लगी "कौन था वह तापस ? उसने ये सब कब कहा था" ? 
"वह कह रहा था कि उसका नाम "कच" है और वह अभी कल परसों ही आया है इस आश्रम में । आज प्रात:काल ही तो मिला था वह । प्रात:काल में ही वह स्वेद में पूरा स्नान किये हुए था । संभवत: वह "योग" करके आ रहा था । 
"क्या नाम बताया था उसने ? कच ? कहां से आया है वह" ? देवयानी ने कुछ सोचते हुए कहा । 
"ये तो हमने नहीं पूछा उससे । लेकिन मुखाकृति और तेज से वह कोई "दैव" लग रहा था" । 
"कोई कुछ भी कह देगा और तुम लोग उसे मान लोगे ? क्या यही सीखा है तुमने इस आश्रम में ? क्या मुझसे अधिक ज्ञान है यहां पर किसी में 'उद्यानिकी' के विषय में ? मैंने तो नहीं कहा था उस काले गुलाब के पुष्प को लाने के लिए ? फिर इतना तर्क वितर्क क्यों" ? क्रोध में देवयानी के चेहरे का रंग थोड़ा सिंदूरी हो गया था । 

देवयानी का रौद्र रूप देखकर साधिका चुपके से वहां से चली गई । मुख्य साधिका व्यंजन बनाने में देवयानी का हाथ बंटाने लगी । मुख्य साधिका ने बचपन से ही देवयानी को पाला पोषा था । देवयानी की मां जयंती की मृत्यु के पश्चात से ही मुख्य साधिका देवयानी का पालन पोषण कर रही है इसलिए देवयानी उसे उचित सम्मान देते हुए उसे "माते" कहकर बुलाती है । मुख्य साधिका से बात करते हुए देवयानी बोली 
"माते, मालपुए, मोदक और हलवा तो मैंने बना दिया है । अब आप तस्मै बना लीजिए तब तक मैं पूजा की तैयारी कर लेती हूं" । देवयानी अपने हाथ साफ करने लगी थी । 
"ठीक है लाडो, तस्मै मैं बना लूंगी" । वह देवयानी को लाडो ही कहती थी । आखिर शुक्राचार्य की लाडली पुत्री थी देवयानी । 

देवयानी पूजा की तैयारी करने चली गई । इतने में वह साधिका पुष्प लेकर आ गई । मुख्य साधिका ने उसे उन पुष्पों से माला गूंथने को कह दिया । इतने में शुक्राचार्य आ गये और तैयारियों का पर्यवेक्षण करने लगे । पूजा की तैयारी करके देवयानी कुटिया से बाहर निकली तो उसने शुक्राचार्य को देखा । उन्हें देखकर वह बोली "सारी व्यवस्था ठीक है ना तात्" ? 

शुक्राचार्य ने समस्त व्यवस्थाओं पर दृष्टिपात करते हुए कहा "हमारी देव कोई व्यवस्था संभाले और वह ठीक नहीं हो , ऐसा हो सकता है क्या ? मुझे यह कहते हुए गर्व की अनुभूति हो रही है कि इतनी कम आयु में ही तुमने घर का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व अपने कंधों पर संभाल लिया है और तुम अपने समस्त उत्तरदायित्वों का निर्वाह पूर्ण मनोयोग से कर रही हो । तुमने तो जयंती का स्थान ले लिया है देव । अब मुझे तुम्हारी मां की कमी महसूस नहीं होती है" । 

मां का नाम लेते ही देवयानी भावुक हो गई । जब वह सिर्फ पांच वर्ष की थी तभी काल ने उससे उसकी मां को छीन लिया था । शुक्राचार्य ने ही उसे माता और पिता दोनों का वात्सल्य प्रदान किया था । उनकी सहायता मुख्य साधिका करती थीं । देवयानी के नेत्रों के सामने जयंती का चित्र आ गया । उस चित्र को देखकर देवयानी के नेत्रों से अश्रु निकल आये जिन्हें देवयानी ने अपने पिता से छुपाकर अपने आंचल से पोंछ लिये थे । 

विषय परिवर्तन करते हुए देवयानी कहने लगी "रंगोली कहां कहां सजानी है तात" ? 
देवयानी की बात सुनकर शुक्राचार्य बोले "अरे, मैं तो बताना ही भूल गया था देव । तुमको रंगोली बनाने की आवश्यकता नहीं है । रंगोली बनाने की व्यवस्था हो चुकी है और संभवत: अब तक तो रंगोली बन चुकी होगी" । 

शुक्राचार्य की बातें सुनकर देवयानी हतप्रभ रह गई । आश्रम में ऐसा कौन है जिसने रंगोली बना भी दी है और उसे ज्ञात ही नहीं है ? उसने शुक्राचार्य से पूछा "रंगोली कौन बना रही है पिता श्री" ? 
"बना रही है नहीं , बना रहा है । वह एक युवक है पुत्री" । शुक्राचार्य ने हंसते हुए कहा । 
"कोई युवक बना रहा है रंगोली ? यह कैसे हो सकता है ? क्या उसे रंगोली बनाना आता है" ? देवयानी प्रश्न दर प्रश्न किए जा रही थी । 
"हां, उसे रंगोली बनाना बहुत अच्छी तरह से आता है । मैंने उसकी बनाई हुई रंगोली देखी है । बहुत अद्भुत है" ।

शुक्राचार्य उसकी प्रशंसा में निमग्न हो गये । उस युवक की इतना प्रशंसा देवयानी सहन नहीं कर सकी इसलिए कहने लगी 
"क्या वह मुझसे भी श्रेष्ठ रंगोली बनाता है तात" ? देवयानी के चेहरे पर आक्रोश स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था । 
"अरे, तुम तो बुरा मान गई, पुत्री । तुमसे बेहतर तो कोई हो ही नहीं सकता है । फिर वह कैसे हो जाएगा" ? शुक्राचार्य अपनी पुत्री का मन रखते हुए बोले । देवयानी शुक्राचार्य को भली भांति जानती थी । वह यह भी जानती थी कि उसके पिता उससे असत्य कह रहे हैं । उसे पता था कि शुक्राचार्य जब कभी असत्य कहते हैं तब उनका चेहरा ऐसे ही दिखता है जैसा अब दिख रहा था । इसका अर्थ है कि वह चाहे जो कोई भी हो, रंगोली का एक श्रेष्ठ कलाकार है । उसने शुक्राचार्य से पूछा 
"रंगोली बनाने वाले इतने श्रेष्ठ कलाकार का नाम अब तक आपने बताया नहीं है तात । या आप उसका नाम बताना ही नहीं चाहते हैं" ? 
"अरे, मैं तो भूल ही गया । उसका नाम कच है । वह बहुत योग्य शिष्य है । वह प्रत्येक दृष्टि से अद्भुत है, असाधारण है, अद्वितीय है" । 

कच का नाम सुनकर देवयानी के तन बदन में आग लग गई । मुख्य साधिका ने भी यही नाम बताया था । उद्यानिकी जैसे विषय पर उसका विशद अध्ययन, ज्ञान और अब रंगोली बनाने की कलाकारी , कच को आम विद्यार्थी से पृथक "विशेष विद्यार्थी" बना रही थी । देवयानी के मस्तिष्क में यह नाम हथौड़े की चोट की तरह गूंजने लगा । 

श्री हरि 
5.7.2023 


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3 Comments

वानी

12-Jul-2023 10:05 AM

Nice

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Varsha_Upadhyay

11-Jul-2023 09:08 PM

👏👌

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Hari Shanker Goyal "Hari"

11-Jul-2023 10:43 PM

🙏🙏

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